|
|
Line 1: |
Line 1: |
− | <div dir ="rtl ">
| + | xfgghc |
− | | |
− | | |
− | ''' نمودار شدن خواجۂ اہل فراق ابلیس'''
| |
− | | |
− | صحبت روشندلان یک دم، دو دم
| |
− | | |
− | آن دو دم سرمایۂ بود و عدم
| |
− | | |
− | عشق را شوریدہ تر کرد و گذشت
| |
− | | |
− | عقل را صاحب نظر کرد و گذشت
| |
− | | |
− | چشم بر بربستم کہ با خود دارمش
| |
− | | |
− | از مقام دیدہ در دل آرمش
| |
− | | |
− | ناگہان دیدم جہان تاریک شد
| |
− | | |
− | از مکان تا لامکان تاریک شد
| |
− | | |
− | اندر آن شب شعلہ ئی آمد پدید
| |
− | | |
− | از درونش پیر مردی بر جہید
| |
− | | |
− | یک قبای سرمہ ئی اندر برش
| |
− | | |
− | غرق اندر دود پیچان پیکرش
| |
− | | |
− | گفت رومی خواجۂ اہل فراق
| |
− | | |
− | آن سراپا سوز و آن خونین ایاق
| |
− | | |
− | کہنۂ کم خندۂ اندک سخن
| |
− | | |
− | چشم او بینندۂ جان در بدن
| |
− | | |
− | رند و ملا و حکیم و خرقہ پوش
| |
− | | |
− | در عمل چون زاہدان سخت کوش
| |
− | | |
− | فطرتش بیگانہ ذوق وصال
| |
− | | |
− | زہد او ترک جمال لایزال۔
| |
− | | |
− | تا گسستن از جمال آسان نبود
| |
− | | |
− | کار پیش افکند از ترک سجود
| |
− | | |
− | اندکے در واردات او نگر
| |
− | | |
− | مشکلات او ثبات او نگر
| |
− | | |
− | غرق اندر رزم خیر و شر ہنوز
| |
− | | |
− | صد پیمبر دیدہ و کافر ہنوز
| |
− | | |
− | جانم اندر تن ز سوز او تپید
| |
− | | |
− | بر لبش آہی غم آلودی رسید
| |
− | | |
− | گفت و چشم نیم وا بر من گشود
| |
− | | |
− | "در عمل جز ما کہ بر خوردار بود
| |
− | | |
− | آنچنان بر کار ہا پیچیدہ ام
| |
− | | |
− | فرصت آدینہ را کم دیدہ ام
| |
− | | |
− | نے مرا افرشتہ ئی نے چاکری
| |
− | | |
− | وحی من بے منت پیغمبری
| |
− | | |
− | نے حدیث و نے کتاب آوردہ ام
| |
− | | |
− | جان شیرین از فقیہان بردہ ام
| |
− | | |
− | رشتۂ دین چون فقیہان کس نرشت
| |
− | | |
− | کعبہ را کردند آخر خشت خشت
| |
− | | |
− | کیش ما را اینچنین تأسیس نیست
| |
− | | |
− | فرقہ اندر مذہب ابلیس نیست
| |
− | | |
− | در گذشتم از سجود اے بیخبر
| |
− | | |
− | ساز کردم ارغنون خیر و شر
| |
− | | |
− | از وجود حق مرا منکر مگیر
| |
− | | |
− | دیدہ بر باطن گشا ظاہر مگیر
| |
− | | |
− | گر بگویم نیست این از ابلہی است
| |
− | | |
− | زانکہ بعد از دید نتوان گفت نیست
| |
− | | |
− | من "بلے" در پردۂ "لا" گفتہ ام
| |
− | | |
− | گفتۂ من خوشتر از نا گفتہ ام
| |
− | | |
− | تا نصیب از درد آدم داشتم
| |
− | | |
− | قہر یار از بہر او نگذاشتم
| |
− | | |
− | شعلہ ہا از کشتزار من ارمن دمید
| |
− | | |
− | او ز مجبوری بہ مختاری رسید
| |
− | | |
− | زشتی خود را نمودم آشکار
| |
− | | |
− | با تو دادم ذوق ترک و اختیار
| |
− | | |
− | تو نجاتے دہ مرا از نار من
| |
− | | |
− | وا کن اے آدم گرہ از کار من
| |
− | | |
− | ایکہ اندر بند من افتادہ ئی
| |
− | | |
− | رخصت عصیان بہ شیطان دادہ ئی
| |
− | | |
− | در جہان با ہمت مردانہ زی
| |
− | | |
− | غمگسار من ز من بیگانہ زی
| |
− | | |
− | بے نیاز از نیش و نوش من گذر
| |
− | | |
− | تا نگردد نامہ ام تاریک تر
| |
− | | |
− | در جہان صیاد با نخچیرہاست
| |
− | | |
− | تا تو نخچیری بہ کیشم تیر ہاست
| |
− | | |
− | صاحب پرواز را افتاد نیست
| |
− | | |
− | صید اگر زیرک شود صیاد نیست"
| |
− | | |
− | گفتمش "بگذر ز آئین فراق
| |
− | | |
− | ابغض الاشیاء عندی الطلاق"
| |
− | | |
− | گفت "ساز زندگی، سوز فراق
| |
− | | |
− | اے خوشا سر مستی روز فراق
| |
− | | |
− | بر لبم از وصل می ناید سخن
| |
− | | |
− | وصل اگر خواھم نہ او ماند نہ من"
| |
− | | |
− | حرف وصل او را ز خود بیگانہ کرد
| |
− | | |
− | تازہ شد اندر دل او سوز و درد
| |
− | | |
− | اندکی غلطید اندر دود خویش
| |
− | | |
− | باز گم کردید اندر دود خویش
| |
− | | |
− | نالہ ئی زان دود پیچان شد بلند
| |
− | | |
− | اے خنک جانی کہ گردد درد مند
| |